अवधी

अवधी हिंदी क्षेत्र की एक उपभाषा है। यह उत्तर प्रदेश मे "अवध क्षेत्र" (लखनऊरायबरेलीसुल्तानपुरबाराबंकीउन्नावहरदोईसीतापुरलखीमपुरफैजाबादप्रतापगढ़) तथा फतेहपुरमिरजापुरजौनपुर आदि कुछ अन्य जिलों में भी बोली जाती है। इसके अतिरिक्त इसकी एक शाखा बघेलखंड में बघेली नाम से प्रचलित है। 'अवध' शब्द की व्युत्पत्ति "अयोध्या" से है। इस नाम का एक सूबा मुगलों के राज्यकाल में था। तुलसीदास ने अपने "मानस" में अयोध्या को 'अवधपुरी' कहा है। इसी क्षेत्र का पुराना नाम 'कोसल' भी था जिसकी महत्ता प्राचीन काल से चली आ रही है।
भाषा शास्त्री डॉ॰ सर "जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन" के भाषा सर्वेक्षण के अनुसार अवधी बोलने वालों की कुल आबादी 1615458 थी जो सन् 1971 की जनगणना में 28399552 हो गई। मौजूदा समय में शोधकर्ताओं का अनुमान है कि 6 करोड़ से ज्यादा लोग अवधी बोलते हैं। उत्तर प्रदेश के 19 जिलों- सुल्तानपुरअमेठीबाराबंकीप्रतापगढ़इलाहाबादकौशांबीफतेहपुररायबरेलीउन्नावलखनऊहरदोईसीतापुरखीरीबहराइचश्रावस्तीबलरामपुरगोंडाफैजाबाद व अंबेडकर नगर में पूरी तरह से यह बोली जाती है। जबकि 6 जिलों- जौनपुरमिर्जापुरकानपुरशाहजहांबादबस्ती और बांदा के कुछ क्षेत्रों में इसका प्रयोग होता है। बिहार के 2 जिलों के साथ पड़ोसी देश नेपाल के 8 जिलों में यह प्रचलित है। इसी प्रकार दुनिया के अन्य देशों- मॉरिशस, त्रिनिदाद एवं टुबैगो, फिजी, गयाना, सूरीनाम सहित आस्ट्रेलियान्यूजीलैंड व हॉलैंड में भी लाखों की संख्या में अवधी बोलने वाले लोग हैं

परिचय
गठन की दृष्टि से हिंदी क्षेत्र की उपभाषाओं को दो वर्गों-पश्चिमी और पूर्वी में विभाजित किया जाता है। अवधी पूर्वी के अंतर्गत है। पूर्वी की दूसरी उपभाषा छत्तीसगढ़ी है। अवधी को कभी-कभी बैसवाड़ी भी कहते हैं। परंतु बैसवाड़ी अवधी की एक बोली मात्र है जो उन्नाव, लखनऊ, रायबरेली और फतेहपुर जिले के कुछ भागों में बोली जाती है।
तुलसीदास कृत रामचरितमानस एवं मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत सहित कई प्रमुख ग्रंथ इसी बोली की देन है। इसका केन्द्र अयोध्या है। अयोध्या लखनऊ से १२० किमी की दूरी पर पूर्व में है। सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', पं महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, राममनोहर लोहिया, कुंवर नारायण की यह जन्मभूमि है। उमराव जान, आचार्य नरेन्द्र देव और राम प्रकाश द्विवेदी की कर्मभूमि भी यही है। रमई काका की लोकवाणी भी इसी भाषा में गुंजरित हुई। हिंदी के रीतिकालीन कवि द्विजदेव के वंशज अयोध्या का राजपरिवार है। इसी परिवार की एक कन्या का विवाह दक्षिण कोरिया के राजघराने में अरसा पहले हुआ था। हिंदी के वरिष् आलोचक विश्वनाथ् त्रिपाठी ने अवधी भाषा और व्याकरण पर महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। फाह्यान ने भी अपने विवरण में अयोध्या का जिक्र किया है। आज की अवधी प्रवास और संस्कृतिकरण के चलते खड़ी बोली और अंग्रेजी के प्रभाव में  रही है।
अवधी के पश्चिम में पश्चिमी वर्ग की बुंदेली और ब्रज कादक्षिण में छत्तीसगढ़ी का और पूर्व में भोजपुरी बोली का क्षेत्र है। इसके उत्तर में नेपाल की तराई है जिसमें था डिग्री आदि आदिवासियों की बस्तियाँ हैं जिनकी भाषा अवधी से बिलकुल अलग है।
व्याकरण
हिंदी खड़ीबोली से अवधी की विभिन्नता मुख्य रूप से व्याकरणात्मक है। इसमें कर्ता कारक के परसर्ग (विभक्ति) "नेका नितांत अभाव है। अन्य परसर्गों के प्रायदो रूप मिलते हैंह्रस्व और दीर्घ। (कर्म-संप्रदान-संबंध : काकरण-अपादान : -से-तेअधिकरण : मा)
संज्ञाओं की खड़ीबोली की तरह दो विभक्तियाँ होती हैंविकारी और अविकारी। अविकारी विभक्ति में संज्ञा का मूल रूप (रामलरिकाबिटियामेहरारूरहता है और विकारी में बहुवचन के लिए "प्रत्यय जोड़ दिया जाता है (यथा रामनलरिकनबिटियनमेहरारुन) कर्ता और कर्म के अविकारी रूप में व्यंजनान्त संज्ञाओं के अंत में कुछ बोलियों में एक ह्रस्व "की श्रुति होती है (यथा रामुपूतुचोरु) किंतु निश्चय ही यह पूर्ण स्वर नहीं है और भाषाविज्ञानी इसे फुसफुसाहट के स्वर-ह्रस्व "और ह्रस्व "" (यथा सांझिखानिठेलुआपेहंटामिलते हैं।
संज्ञाओं के बहुधा दो रूपह्रस्व और दीर्घ (यथा नद्दी नदियाघोड़ा घोड़वानाऊ नउआकुत्ता कुतवामिलते हैं। इनके अतिरिक्त अवधी क्षेत्र के पूर्वी भाग में एक और रूप-दीर्घतर मिलता है (यथा कुतउना) अवधी में कहीं-कहीं खड़ीबोली का ह्रस्व रूप बिलकुल लुप्त हो गया हैयथा बिल्लीडिब्बी आदि रूप नहीं मिलते बेलइयाडेबिया आदि ही प्रचलित हैं।
सर्वनाम में खड़ीबोली और ब्रज के "मेरा तेराऔर "मेरो तेरोरूप के लिए अवधी में "मोर तोररूप हैं। इनके अतिरिक्त पूर्वी अवधी में पश्चिमी अवधी के "सो" "जो" "कोके समानांतर "से" "जे" "केरूप प्राप्त हैं।
क्रिया में भविष्त्काल के रूपों की प्रक्रिया खड़ीबोली से बिलकुल भिन्न है। खड़ीबोली में प्रायप्राचीन वर्तमान (लट्के तद्भव रूपों मेंगा-गी-गे जोड़कर (यथा होगाहोगीहोंगे आदिरूप बनाए जाते हैं। ब्रज में भविष्यत् के रूप प्राचीन भविष्यत्काल (लट्के रूपों पर आधारित हैं। (यथा होइहैंउ भविष्यतिहोइहोंउ भविष्यामि) अवधी में प्रायभविष्यत् के रूप तव्यत् प्रत्ययांत प्राचीन रूपों पर आश्रित हैं (होइबाउ भवितव्यम्) अवधी की पश्चिमी बोलियों में केवल उत्तमपुरुष बहुवचन के रूप तव्यतांत रूपों पर निर्भर हैं। शेष ब्रज की तरह प्राचीन भविष्यत् पर। किंतु मध्यवर्ती और पूर्वी बोलियों में क्रमशतव्यतांत रूपों की प्रचुरता बढ़ती गई है। क्रियार्थक संज्ञा के लिए खड़ीबोली में "नाप्रत्यय है (यथा होनाकरनाचलनाऔर ब्रज में "नो" (यथा होनोकरनोचलनो) परंतु अवधी में इसके लिए "प्रत्यय है (यथा होबकरबचलब) अवधी में निष्ठा एकवचन के रूप का "वामें अंत होता है (यथा भवागवाखावा) भोजपुरी में इसके स्थान पर "में अंत होनेवाले रूप मिलते हैं (यथा भइलगइल) अवधी का एक मुख्य भेदक लक्षण है अन्यपुरुष एकवचन की सकर्मक क्रिया के भूतकाल का रूप (यथा करिसिखाइसिमारिसि) -"सिमें अंत होनेवाले रूप अवधी को छोड़कर अन्यत्र नहीं मिलते। अवधी की सहायक क्रिया में रूप "" (यथा हइहइं), "अह" (अहइअइईऔर "बाटइ" (यथा बाटइबाटइंपर आधारित हैं।
ऊपर लिखे लक्षणों के अनुसार अवधी की बोलियों के तीन वर्ग माने गए हैं : पश्चिमीमध्यवर्ती और पूर्वी। पश्चिमी बोली पर निकटता के कारण ब्रज का और पूर्वी पर भोजपुरी का प्रभाव है। इनके अतिरिक्त बघेली बोली का अपना अलग अस्तित्व है।
विकास की दृष्टि से अवधी का स्थान ब्रज, कन्नौजी और भोजपुरी के बीच में पड़ता है। ब्रज की व्युत्पत्ति निश्चय ही शौरसेनी से तथा भोजपुरी की मागधी प्राकृत से हुई है। अवधी की स्थिति इन दोनों के बीच में होने के कारण इसका अर्धमागधी से निकलना मानना उचित होगा। खेद है कि अर्धमागधी का हमें जे प्राचीनतम रूप मिलता है वह पाँचवीं शताब्दी ईसवी का है और उससे अवधी के रूप निकालने में कठिनाई होती है। पालि भाषा में बहुधा ऐसे रूप मिलते हैं जिनसे अवधी के रूपों का विकास सिद्ध किया जा सकता है। संभवतये रूप प्राचीन अर्धमागधी के रहे होंगे।
अवधी साहित्य
मुख्य लेख : अवधी साहित्य
प्राचीन अवधी साहित्य की दो शाखाएँ हैं : एक भक्तिकाव्य और दूसरी प्रेमाख्यान काव्य। भक्तिकाव्य में गोस्वामी तुलसीदास का "रामचरितमानस" (सं. 1631) अवधी साहित्य की प्रमुख कृति है। इसकी भाषा संस्कृत शब्दावली से भरी है। "रामचरितमानसके अतिरिक्त तुलसीदास ने अन्य कई ग्रंथ अवधी में लिखे हैं। इसी भक्ति साहित्य के अंतर्गत लालदास का "अवधबिलासआता है। इसकी रचना संवत् 1700 में हुई। इनके अतिरिक्त कई और भक्त कवियों ने रामभक्ति विषयक ग्रंथ लिखे।
संत कवियों में बाबा मलूकदास भी अवधी क्षेत्र के थे। इनकी बानी का अधिकांश अवधी मे है। इनके शिष्य बाबा मथुरादास की बानी भी अधिकतर अवधी में है। बाबा धरनीदास यद्यपि छपरा जिले के थे तथापि उनकी बानी अवधी में प्रकाशित हुई। कई अन्य संत कवियों ने भी अपने उपदेश के लिए अवधी को अपनाया है।
प्रेमाख्यान काव्य में सर्वप्रसिद्ध ग्रंथ मलिक मुहम्मद जायसी रचित "पद्मावतहै जिसकी रचना "रामचरितमानससे 34 वर्ष पूर्व हुई। दोहे चौपाई का जो क्रम "पद्मावतमें है प्रायवही "मानसमें मिलता है। प्रेमाख्यान काव्य में मुसलमान लेखकों ने सूफी मत का रहस्य प्रकट किया है। इस काव्य की परंपरा कई सौ वर्षों तक चलती रही। मंझन की "मधुमालती", उसमान की "चित्रावली", आलम की "माधवानल कामकंदला", नूरमुहम्मद की "इंद्रावतीऔर शेख निसार की "यूसुफ जुलेखाइसी परंपरा की रचनाएँ हैं। शब्दावली की दृष्टि से ये रचनाएँ हिंदू कवियों के ग्रंथों से इस बात में भिन्न हैं कि इसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की उतनी प्रचुरता नहीं है।
प्राचीन अवधी साहित्य में अधिकतर रचनाएँ देशप्रेमसमाजसुधार आदि विषयों पर और मुख्य रूप से व्यंग्यात्मक हैं। कवियों में प्रतापनारायण मिश्रबलभद्र दीक्षित "पढ़ीस", वंशीधर शुक्लचंद्रभूषण द्विवेदी "रमई काका", गुरु प्रसाद सिंह "मृगेशऔर शारदाप्रसाद "भुशुंडिविशेष उल्लेखनीय हैं।
प्रबंध की परंपरा में "रामचरितमानसके ढंग का एक महत्वपूर्ण आधुनिक ग्रंथ द्वारिकाप्रसाद मिश्र का "कृष्णायनहै। इसकी भाषा और शैली "मानसके ही समान है और ग्रंथकार ने कृष्णचरित प्रायउसी तन्मयता और विस्तार से लिखा है जिस तन्मयता और विस्तार से तुलसीदास ने रामचरित अंकित किया है। मिश्र जी ने इस ग्रंथ की रचना द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि प्रबंध के लिए अवधी की प्रकृति आज भी वैसी ही उपादेय है जैसी तुलसीदास के समय में थी।




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